जब में बाल भास्कर पत्रिका संभालता था तो खुद बच्चों के लिए पात्र लिखता था |
पिता का मान बढ़ाएगी बेटी
सास-बहू के सीरियल से उकताए हुए दर्शकों के लिए सोनी टीवी 1 जून से इमोशंस से भरपूर धारावाहिक ‘मान रहे तेरा...पिता’ लेकर आ रहा है। मुंबई में आयोजित हुए स्क्रीनिंग को कवर कर लौटे शिवेश श्रीवास्तव की रिपोर्ट...
पीपुल्स समाचार की ओर से मुझे मिला
मुंबई जाने का अवसर
टे लीविजन धारावाहिकों की शृंखला में रिश्तों पर आधारित सीरियल्स में अभी तक सास-बहू की खटपट, पति-पत्नी की अनबन और उनके बीच की उलझन-सुलझन देखने को खूब मिली, लेकिन सोनी टीवी का नया धारावाहिक मान रहे तेरा पिता कुछ खास होगा, क्योंकि तमाम रिश्तों से परे यह कहानी है बेटी और पिता के पवित्र रिश्ते की जहां बेटी अपने क्रांतिकारी विचारधारा के पिता के मान के लिए करती है संघर्ष और निभाती है अपना फर्ज। हाल ही में मुंबई में हुए धारावाहिक के स्क्रीनिंग आयोजन में कलाकारों और निर्माता-निर्देशकों ने सीरियल्स के प्लाट से जुड़ी बातें हमसे शेयर कीं।
धारावाहिक का केंद्रीय पात्र यानि 18 साल की अनमोल कोयले की खदानों के लिए विख्यात छत्तीसगढ़ के बिलासपुर शहर में पैदा हुई। दुर्भाग्य से कम उम्र में ही कोयले की खदान में ही एक दुर्घटना में उसने अपनी मां को खो दिया। उसका पिता दुर्गाप्रसाद इन्हीं कोयले की खदानों से अपनी रोजी कमाता था, लेकिन पत्नी को जब इन खदानों ने लील लिया, तो दुर्गाप्रसाद अपनी नौकरी छोड़ इन जानलेवा खदानों को बंद करवाने की लड़ाई अपने दम पर लड़ रहा है, जिसके लिए उसने प्रधानमंत्री को भी पत्र लिखा। परिवार के सदस्यों यहां तक की उसके बेटे ने भी उसे पागल करार दे दिया था, वहीं दुर्गाप्रसाद की बेटी अपने पिता की भावनाओं और जज्बातों को गहराई से समझती है। दूसरी ओर अनमोल का चाचा कालीप्रसाद बिलापुर का ताकतवर एमएलए, सबकुछ जानकर भी अनजान बना हुआ है, जो अपने स्वार्थ के लिए राजनीति करता है। काली की पत्नी इंदू अपने पति के ओहदे के घमंड में चूर है, तो दूसरी ओर काली का बड़ा बेटा माधव है पूरी तरह हिंसा का पुजारी। रावण सरीखे इस परिवार में कोमल और नाजुक अनमोल को यदि कोई समझता है, तो वह हैं दादी, जो कालीप्रसाद और दुर्गाप्रसाद की मां हैं। अनमोल का एक छोटा भाई श्रीकांत भी है, जो महज 15 साल का है और अपने पिता को वह भी पागल समझते हुए चाचा कालीप्रसाद से प्रभावित है और एक दिन बनना चाहता है काली की तरह बड़ा राजनीतिज्ञ।
काली की चतुराई है कि वे अपने बुरे मंसूबों को अंजाम देने के लिए भतीजी अनमोल को करता है पूरा सपोर्ट, पर इसके पीछे छिपे उसके इरादे कुछ
और हैं। सोनी एंटरटेनमेंट के प्रोग्रामिंग हेड अजय भावलकर और प्रोड्यूसर कंपनी स्वास्तिक पिक्चर्स के सिद्धार्थ तिवारी का कहना है कि विशेष तानेबाने में बुनी यह कहानी दर्शकों को रोमांचित करने के लिए तैयार है। धारावाहिक में प्रमोद मुथु दुर्गाप्रसाद के किरदार में, वरुण बडोला काली प्रसाद के रूप में हैं और अभिनेत्री अर्चना ताइडे अनमोल के रूप में दिखाई देंगी।
झलकि यां
कलाकारों के परिचय के मौके पर सिनेमेक्स वर्सोवा में सोनी टीवी द्वारा आयोजित कार्यक्रम में रजा मुराद, राजेंद्र गुप्ता और मनोज जोशी आदि ने भी शिरकत की। अभिनेता रजा मुराद ने सोनी टीवी और पूरी टीम को धारावाहिक की सफलता के लिए शुभकामनाएं दीं, तो वहीं धारावाहिक में पिता का किरदार निभा रहे प्रमोद मुथु ने कहा कि इस भूमिका को निभाकर उन्हें बहुत प्रसन्नता हो रही है। अनमोल यानि अर्चना ताइडे आकर्षण का केंद्र बनी रहीं। अब देखना यह है कि बेटी अपने पिता के मान को किस तरह बढ़ाती है।
कदीर के रंग
शिवेश श्रीवास्तवजन्म से सामान्य पैदा हुए शहर के वरिष्ठ कलाकार अब्दुल कदीर को क्या पता था कि जीवन के पांचवें वर्ष में ही कुदरत उनके साथ एक क्रूर मजाक करेगी। इस दौरान पोलियो से उनके शरीर में विकृति आ गई और वे चलने-फिरने और उठने-बैठने मेंभी लाचार हो गए। घर-परिवार और स्वयं उनके लिए यह बड़ा सदमा था। उन्हें अपने उठने-बैठने के लिए किसी सहारे की जरूरत होती है। खैर ऊपर वाले की मर्जी को सलाम करते हुए अब्दुल कदीर खान, दुलारे मियां ने अपने जीने के जज्बे को विकृत नहीं होने दिया और अपनी जिंदगी को इस तरह से रंगीन किया कि सामान्य व्यक्ति भी हौसले को नमन करे।
सीएम को देंगे तोहफा
अपने हुनर में एक्सपर्ट कदीर 1 मिनट में किसी को कागज पर
उतारने का जादू जानते हैं। उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, फिल्म निर्देशक प्रकाश झा और सुषमा स्वराज की शानदार स्केचिंग कर अपनी उत्कृष्ट कला का परिचय दिया है। वे प्रदेश के मुखिया यानी मुख्यमंत्री महोदय से मिलने की कामना रखते हैं और उन्हें अपनी बनाई हुई उनकी तस्वीर ·भेंट करना चाहते हैं उन्हें। पेंटिंग के अलावा उन्हें संगीत का बेहद शौक है और रेडियो व टीवी पर बतौर कलाकारभी वर्षों तक जुड़े रहे।
क्या खास है उनमें
56 वर्षीय कदीर साहब बताते हैं कि बचपन से ही उन्हें पेंटिंग का शौक था और वे लोगों को व कुदरत के विविध नजारों को अपनी पेंसिल और रंगों से कागज पर उतारा करते थे। विकलांगता एक ओर जिंदगी के सफर में बाधक बनने को तैयार थी, तो दूसरी ओर खुदा के दिए हुनर ने उन्हें जीने का सबसे बड़ा सहारा दिया। वे अपनी कला में रमते गए और कोरे कागज पर अपनी कल्पनाओं को आयाम देते गए। हुनर ने उन्हें पहचान दिलाई और जब शहर के बड़े-बड़े लोगों को उनकी इस खासियत के बारे में पता चला, तो उनसे संपर्क किया। कदीर मियां के आर्ट ने अब उनके रोजगार का रूप ले लिया था और वे बताते हैं कि उन्होंने विविध बड़ी कंपनियों के लोगों और कमर्शियल के लिए भी अपने हुनर का इस्तेमाल किया और बदले में उन्हें पैसाभी मिलने लगा। एक बार फिर उनका मन ऊपर वाले के खेल पर मुस्कराया और उनके मन ने कहा कि वाकई वो कुछ छीनता है, तो उससे ज्यादा देता है।
मिली पहचान
हुआ भी यही कदीर की कलाकारी को देश और दुनिया की दिग्गज हस्तियों ने सम्मान दिया। जिनमें भारत में मिशनरीज आफ़ चैरिटी की संस्थापक और संत स्व. मदर टेरेसा और अभिनय सम्राट दिलीप कुमार का नाम प्रमुख है। विकलांगता के बावजूद उनके हुनर और शख्सियत ने उन्हें इन हस्तियां से मिलवाया और सम्मान भी दिलवाया।
आदर्श हैं उनके
कदीर मियां विख्यात पेंटर एम-एफ हुसैन को अपना आदर्श मानते हैं। वे कहते हैं कि उन्होंने भी जमीन से शुरुआत करके अपनी मेहनत से ऊंचा दर्जा पाया है और मुकाम बनाया। उम्र के इस दौर में वे अपने कला पथ को निरंतर जारी रखे हैं और बुधवारा क्षेत्र में स्थित अपनी छोटी सी दुकान में काम न होने के बावजूद अपने हुनर को आगे बढ़ाते रहते हैं और वक्त का सही उपयोग करने में यकीन रखते हैं। अपनी मेहनत के साथ-साथ अपने दोस्तों के ·ाी शुक्रगुजार हैं, जो उन्हें हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहते हैं और उनकी पूरी मदद करते हैं। वे स्वीकारते हैं कि आज कंप्यूटर और तकनीक की नकली दुनिया ने इंसान के इस असली हुनर को विलुप्त होने की कगार पर ला दिया है। आज उनके पास वह काम नहीं है, जो आज से 10-12 वर्ष पूर्व हुआ करता था और इसकी वजह है तकनीक की तरफ भागती दुनिया। वे चाहते हैं कि सरकार को उन जैसे कलाकारों के हुनर को बचाने के लिए आगे आना चाहिए और ठोस प्रयास करने चाहिए।
चलते-चलते
अपनी विकलांगता के चलते उन्होंने विवाह नहीं किया और अपने भाइयों के साथ रहते हैं। वे अपने रंगों में अपने दर्द को इस तरह समेट और छुपा लेते हैं कि आंसुओं की कई बूंदे कब रंगों में घुलकर किसी की तस्वीर बन गर्इं किसी को पता नहीं और शायद पता भी न चलेगा, क्योंकि कदीर के चेहरे पर किसी प्रकार का कोई ग़म नहीं दिखता, विकलांगता के बावजूद जिंदगी से कोई शिकवा नहीं है। कारण, वे रंग उनके साथ हैं, जो किस्मत से ही किसी को मिलते हैं, जो उनके लिए ईश्वर की सबसे बड़ी देन हैं। वाकई वे पूरी दुनिया के लिए मिसाल हैं।
उस काली रात का गवाह
आज से 25 बरस पूर्व गैसकांड की उस रात को जगदीश नेमा पुराने शहर के तलैया क्षेत्र में अपने घर के पटियों पर बैठे दोस्तों के साथ बतिया रहे थे। लेकिन उस रात की दासतां कुछ और ही थी रोज देश, शहर और राजनीति के तमाम मसलों पर चर्चा करने वाले जगदीश और उनके सभी साथियों को उस रात किसी अनहोनी का अंदेशा हो रहा था और हुआभी यही। वे कहते हैं रात 9 साढ़े नौ का वक्त रहा होगा और उन्हें भागते -दौड़ते लोग नजर आने लगे। जगदीश और उनके मित्रों ने जानने की कोशिश की, लेकिन बदहवास लोग कुछ भी ठीक से बताने की स्थिति में नहीं थे। आदमी, औरत बच्चे, आंखों से बहता पानी, भागो भगो ये चीख पुकारें आखिर माजरा क्या है कोई नहीं समझ पा रहा था। किसी ने कहा आग लग गई है, तो किसी का कहना था कि कहीं दंगे हो गए हैं। इसी आपाधापी में रात गुजरती गई। जगदीश और उनके मित्र भी सच जानने के लिए घर वालों को बगैर बताए काफी दूर निकल आए भागते लोग लाशों में तब्दील होते जा रहे थे और काली घिरती रात में जगदीश और उनके मित्र मौत का यह अजीब तांडव देखते रहे और लोगों को सँभालने का पूरा प्रयासभी करते रहे। अंधेरे को चीरकर सूरज ने अपनी किरणें बिखरार्इं, लेकिन दूसरी सुबह भोपाल के लिए सुप्रभात नहीं थी, बल्कि ऐसा लग रहा था कि प्रकृति ने सूरज को लाशों के ढेर पर रोशनी करने के लिए भेजा हो कि देख लो आज मानव की औद्योगिक क्रांति का एक विनाश यह कहना है जगदीश का। जब तक उन्होंने सच जाना कि यूनियन कार्बाइड की गैस का यह विनाशकारी तांडव है, तब तक काफी देर हो चुकी थी। दरअसल यह प्र्भभित इलाके की ओर से पुराने शहर की ओर भागे हुए लोग थे, जो उस औद्योगिक इकाई से दूर अपनी जान बचाने के लिए छोला, करौंद, भोपाल टाकीज, बस स्टैंड से भागते हुए तलैया, कमला पार्क और मोती मस्जिद तक आ पहुंचे थे, लेकिन गैस का जहर तो उनकी सांसो में समा चुका था और पूरे शहर की फिजा में ·ाी अब धीरे-धीरे घुल चुका था। सड़कों पर लाशों के ढेर थे और आज जगदीश नेमा व उनके दोस्तों के लिए एक बड़ा और ·ायानक अंतिम संस्कार करने की चुनौती थी, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी की थी। कोई इस काम के लिए आगे आने को तैयार नहीं हो रहा था, लेकिन ईश्वर ने जगदीश और उनके मित्रों को प्रेरणा और ताकत दी। इन लोगों ने अपने हाथों से मृत लोगों को चिता में अग्नि दी और सुपुर्दे खाक किया। आम आदमी शमशान और मरघट में तीन घंटे भी नहीं ठहर सकता, लेकिन इन्होंने लगातार तीन दिनों तक भूखे -प्यासे रहकर इस नेक काम को अंजाम दिया।
लौटै घर
सैकड़ों लाशों का संस्कार करने के बाद जगदीश और उनके मित्र घर लौटे, तब जाकर घर वालों की जान में जान आई। पूरे शहर में मातम और शौक की लहर थी, लेकिन जगदीश व उनके मित्रों का यह साहस देखकर वह काली रात भी हैरत में थी और फिर से शहर को एक बार यकीन हुआ कि अभी दुनिया में मानवता और जनकल्याण की भावना बाकी है। जगदीश बताते हैं कि जब उनके इस कार्य के बारे में सभी ने जाना तो देश-विदेश की तमाम बड़ी मैगजींस और पत्र-पत्रिकाओं ने उन्हें अपने कैमरे में कैद किया और विश्वप्रसिद्ध टाइम्स मैगजीन व डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माताओं ने उनके साक्षात्कार लिए और घटना के बारे में जितना वे कुछ जानते थे उन्होंने सभी को बताया। जगदीश बताते हैं कि आज भी उनके मित्र बताते हैं कि ·भारत की इस त्रासदी को अमेरिका और ब्रिटेन जैसे मुल्कों में फिल्मों और मैगजींस व चित्रों के माध्यम से बताया जाता है और वहां की आर्ट गैलरियों में भी जगदीश की सेवा कार्य के बड़े-बड़े चित्र लगे हैं। लेकिन जगदीश को न तो इससे खुशी है और न कोई बड़ी उपलब्धि का गुरूर। उन्हें तो मलाल है कि इस औद्योगिक त्रासदी के पीड़ित लोगों को 25 वर्ष बाद भी न्याय नहीं मिल पाया है। सरकार के प्रयासों से वे खुश नहीं हैं। वे कहते हैं कि लोगों के हक का मुआवजा बीच में ही गायब हो गया। गैस पीड़ितों के नाम पर खुले अस्पतालों में उपचार व दवाओं का आभाव है। लोग अभी भी उस भयानक गैस की विकृतियों से जूझ रहे हैं। इनके नाम पर शुरू हुई संस्थाएं भी अपना उल्लू सीधा कर रही हैं।
उनका प्रयास
जगदीश से मिलने पर आपको अहसास होगा कि यह शख्स सड़कों पर पैदल नंगे पैर चलता है, लंबी दाढ़ी हाथ में लाठी और अपनी धुन में दीवाना। वे लेखक और शायर व भजन गायक ·भी हैं। शहर के सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यों में बढ़-चड़कर हिस्सा लेने वाले जगदीश इस त्रासदी से पीड़ितों के लिए न्याय की दरकार रखते हैं। वे न तो राजनीतिक चपलता जानते हैं और न ही सियासी दांव-पेंच। वे अपनी सच्चाई और अच्छाई के बल पर पीड़ितों के पक्ष में यह जंग जीतना चाहते हैं। इसके लिए वे पैदल यात्राएं करते हैं और प्रदेश के विविध धार्मिक स्थल पर निकल पड़ते हैं नंगे पैर। पिछले दिनों द्वारकाधीश की पैदल यात्रा करके आए हैं। उनका ढाई माह का यह सफर था लेकिन उनका नाम किसी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं है और न ही इसकी उनको चाहत है। वे कहते हैं कि अब उनका यकीन इंसानों से उठ गया है और बस ईश्वर से उन्हें आस है। इसी उद्देश के लिए वे इस तरह की पद यात्राएं करते हैं ताकि गैस कांड में मृत हुई आत्माओं को शांति मिल सके और पीड़ितों को न्याय मिले, क्योंकि उस खौफनाक मंजर को उन्होंने अपनी आंखों से देखा है, जिसे वे जीवनपर्यंतभूल नहीं सकते। आज गैसकांड की 25 भी बरसी पर जगदीश का सिर्फ इतना ही कहना है कि विषैली गैस के बदले में पीड़ितों को कुछ नहीं मिला बस मिले हैं ये 25 वर्ष और पीड़ाएं।
तारे जमीं पर
शिवेश श्रीवास्तव
क्या कभी यात्रा पर जाते वक्त आपने रेलवे स्टेशन पर आवारा घूमते हुए बच्चों पर ध्यान दिया है? एक दूसरे से लड़ते-झगड़ते इन बच्चों के प्रति आपके दिमाग में सहानुभूति जागी है। आप कभी सोचते हैं कि उनके बारे में आपको कुछ करना चाहिए। आपनेकभी यह निश्चय किया है कि इन बच्चों का पेट कैसेभरता होगा, ये स्कूल जाते हैं कि नहीं या फिर इनके माता-पिता इनके प्रति जिम्मेदार हैं कि नहीं आदि..आदि। सच बताएं तो आप अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा में रहते हैं। मन किया तो इन्हें डांट-डपट दिया या फिर भीख मांगते बच्चों को 2-4 रुपए दे दिए। लेकिन इस समाज में कुछ लोग ऐसेभी हैं, जो इनके बारे में सोचते हैं। इनकी फिक्र करते हैं और यही नहीं उन्हें इनके भविष्य कीभी बड़ी चिंता है। और यह लोग हैं दिशा और बचपन जैसी संस्थाओं से जुड़े लोग जो समाज और दुनिया की आपा-धापी से दूर आस्कर अवार्ड विनिंग फिल्म स्लम डॉग मिलेनियर तो नहीं बना रहे, लेकिन वास्तव में स्लम और गरीबी की गंदी जिंदगी से जूझते इन गरीब बच्चों के लिए कुछ करने को ललायित हैं।
क्या है खास
हमने बात की यहां की दिशा नामक संस्था में बच्चों के अध्यापन कार्य से जुड़ीं शिक्षिका और समाज सेवी शोभा शर्मा से। शोभा ने हमें बताया कि सर्वशिक्षा अभियान के तहत दिशा नामक शहर की संस्था में ऐसे गरीब, बेसहारा, असहाय और घर से परित्यक्त बच्चों के लिए कुछ खास किया जा रहा है। वे कहती हैं कि स्टेशन और गली-मोहल्लों में आवारा घूमते इन बच्चों को वहां से लाया जाता है और संस्था में बड़ी मेहनत और जतन के साथ उन्हें समाज की मुख्य धारा में जोड़ने का प्रयास किया जाता है। इसके लिए उनकी संस्था में आवासीय ब्रिज कोर्स संचालित है, जिसके तहत बच्चों को वहां खाना, रहना और शिक्षा की तमाम व्यवस्थाएं की जाती हैं, जिसमें उन्हें पूरा सहयोग करते हैं केंद्र प्रभारी दुर्गेश ठाकुर और इनके अलावा अन्य स्टाफ सहयोगियों की मदद से समाज की इस विडंबना से सभी जूझते हैं और इन बच्चों के भविष्य के प्रति चिंतित रहते हैं।
चुनौतियां कम नहीं
शोभा बताती हैं कि एक बार शिक्षित वर्ग के बच्चों को समझाना-पढ़ाना फिरभी आसान है, लेकिन सड़क और स्लम से यहां लाए गए बच्चों पर नियंत्रण कर उन्हें जीने की राह बताना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं होता। लेकिन वे और उनके सहयोगी, समाज की चकाचौंध से दूर अंधियारें में दीप जलाकर संतुष्टि पाते हैं और जूझते हैं बच्चों की बीमारियों से, पीढ़ाओं से उनकी अशिक्षा से और उनके गंदे व्यवाहर से भी इन बच्चों को संस्था में लाने से लेकर इन्हें स·य बनाने की प्रोसेस जटिल और लंबी होती है। आवारा बच्चों को संस्था में मना कर लाना कठिन होता है, फिर जैसे-तैसे वे संस्था में आते हैं, तो उन्हें नियमों में बांधनाभी एक समग्र प्रयास होता है। लेकिन वे खुश हैं कि जल्दी ही बच्चे जीवन के इस अच्छे पक्ष को समझ जाते हैं और धीरे-धीरे निर्देशों का पालन करने लगते हैं।
नियम-कायदे
समय पर खाना, सोना और पढ़ना यह सारी चीजें बच्चों को सिखाई जाती हैं। उन्हें संस्था के नियमों के तहत आगे की पढ़ाई के लिए स्कूलभी भेजा जाता है और कोशिश की जाती है कि माता-पिता से लड़कर आए, घर से किसी डर के कारण भागे हुए ये बच्चे पुन: अपने माता-पिता और परिवार के पास लौट सकें, लेकिन नशे और अपराध के नर्क से दूर रहें। यही नहीं संस्था में कई बच्चों को अपने पैरों पर खड़ा होने के सहयोग विशेष परिस्थितियों में करवाया जाता है और उन्हें आई.टी.आई सरीखे कई अन्य व्यवसायिक कोर्सभी करवाए जा रहे हैं। एक मासूम बच्चे आकाश ने जो अपने गरीब-माता-पिता से दूर दिशा में पल रहा है हमें भोजन मंत्र सुनाया और बताया कि वह दिशा में रहकर काफी खुश है और परिवार से ज्यादा प्यार वहां उसे मिलता है।
मलाल भी है
यहां के शिक्षकों और व्यवस्थापकों का कहना है कि इस कार्य के लिए सरकारी मदद तो मिलती है, जो ना-काफी है। अत: इस स्वस्थ उद्देश्य के लिए यदि सरकारी आर्थिक प्रयास और ज्यादा मजबूत हों और उन्हें बच्चों की हर समस्या से जूझने के लिए सहयोग और सहायता मिले, तो इस पुण्य काम में और तेजी आएगी और मदद करने के लिए लोगों में भी उत्साह बढ़ेगा। बहरहाल ऐसे अतुलनीय प्रयासों के बारे में कहने को तो बहुत कुछ है, लेकिन जरूरत है सामाजिक जागरूकता की। क्योंकि अपने लिए जिए तो क्या जिए ए दिल तू जी जमाने के लिए इन पंक्तियों को चरितार्थ करती हुई इस संस्था की तरह हरेक को आगे आना होगा। क्योंकि ये बच्चे स्ल्म डॉग्स नहीं हैं, बल्कि ये तारे जमीं पर हैं।
भोपाल की चटोरी गली
शिवेश श्रीवास्तव
राजधानी भोपाल के इब्राहिमपुरा की चटोरी गली नॉनवेज के शौकीनों का गढ़ है। जब बात स्वाद की हो, तो ट्रैफिक कीभी परवाह नहीं। खास बात यह है कि शाम के वक्त यहां पर खाने के शौकीन बिरयानी कबाब, पाए का सूप और नल्ली-निहारी का स्वाद लेते हुए पाए जा सकते हैं...
न वाबों का शहर और मांसाहारी व्यंजनों की बात न की जाए, तो सबकुछ अधूरा है। स्वादभी ऐसा की चखेंगे, तो यम..यम करते रह जाएंगे। तो वीकेंड पर यदि आपका मन नॉनवेज के चटखारे लेने का हो, तो कहीं न जाइए पुराने शहर में इब्राहिमपुरा की चटोरी गली आपको बुला रही है। कहते हैं इस गली का नाम चटोरी गली रखने के पीछे मौजूद कई कारणों में से एक यह ·ाी है कि इस स्पॉट पर स्पाइसी नॉनवेज की महक ही आपको चटोरा बना देने के लिए काफी है, तो फिर इस गली का नाम चटोरी गली पड़ गया, जहां एक विज्ञापन की पंच लाइन याद आती है कि जी ललचाए तो रहा न जाए।
कहते हैं
शहर के ही एक नॉनवेज शौकीन इरफान बताते हैं कि आज आलम यह है कि शाम के वक्त यहां चटखारे लेने वालों के कारण ट्रैफिक जाम की स्थितिभी कभी -कभी देखी जा सकती है। यही नहीं चलती गाड़ियों में लोग यहां के तंदूर में चमकते चिकन की गर्माहट को देखकर आकर्षित हो जाते हैं और उनका मन चटखारे लेने को बरबस हो ही जाता है।
क्या खास है
एक बार ·ोपाली बिरयानी, बन कबाब और सीख कबाब चख लिया, तो चटोरी गली की यादें हमेशा ताजा रहेंगी जहन में। खानसाामे ·ाी पूरी लगन से पकाते हैं सबकुछ। हैदराबाद से चटोरी गली के व्यंजनों का स्वाद लेने आए मुश्ताक खान से हमने बात की तो उन्होंने बताया कि यहां का नरगिसी कवाब वाकई हैदराबादी कवाब की तर्ज पर है, जिसके स्वाद की जितनी तारीफें की जाए कम हैं। राजीव ठाकुर कहते हैं कि दोस्तों को अच्छा और सस्ते में निपटाना हो, तो चटोरी गली का जवाब नहीं, क्योंकि यह जगह इतनी सस्ती है कि 5 रुपए से लेकर मात्र 50 रुपए में जी ·ार कर स्वाद लिया जा सकता है औरभूख शांत हो सकती है, जबकि बड़ी होटल्स में ट्रीट देने का मतलब है कि जेब पर ·ाारी दबाव। इसलिए वे जब भी नॉनवेज ट्रीट देने के मूड में होते हैं, तो इब्राहिमपुरे की चटोरी गली में आना ही पसंद करते हैं। बस एक चीज है कि उन्हें यहां अधिकतर गाड़ी पार्क करने की समस्या भी यहां होती है। लेकिन स्वाद के आगे इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं।
मीनू
कबाब, सीख कबाब, बन कबाब, पाए का सूप, नल्ली निहारी, तंदूरी चिकन, टिक्का/ बिरयान, तंदूरी मुर्गा।
सेहत के लिएभी
यहां पर पाए के सूप का आनंद लेते हुए मिले दुबले-पतले अंजुम ने बताया कि पाए का सूप बॉडी बनाने और ताकत के लिएभी अच्छा माना जाता है। यही वजह है कि वे सप्ताह में दो-तीन बार पाए के सूप का स्वाद लेने आते हैं और सेहत के लिहाज सेभी उन्हें इससे फायदा मिल रहा है। ठंड में तो इस सूप का जवाब नहीं। दूसरी ओर नल्ली निहारी के शौकीन फय्याज अंसारी कहते हैं कि दिल्ली में उन्होंने नल्ली-निहारी का स्वाद लिया था और उसके बाद उन्हें ·ोपाल में ही वह मजा आ गया। इसलिए वेभी जब कभी मन करता है, तो यहां आ जाते हैं।
नॉनवेज डिशेज की शौकीन रूही कहती हैं कि चटोरी गली में सिर्फ पुरुषों का जमावड़ा लगा रहता है। महिलाओं के लिए जगह नहीं है। लेकिन घर के पुरुष सदस्य उनके लिए वहां से पार्सल बनवाकर ले आते हैं और उनका शौकभी पूरा हो जाता है। रूही को खासतौर पर तंदूरी चिकन पसंद है, लेकिन वेट बढ़ने होने के डर से वे इसे लिमिट में ही खाना पसंद करती हैं और बिरयानी को प्रिफर करती हैं।
क्राफ्ट artist
खुद को नहीं टूटने दिया
क्रॉफ्ट आर्टिस्ट सायरा देश और दुनिया की तमाम औरतों के लिए मिसाल हैं कि जीवन हारने और निराश होने का नाम नहीं है। वे मानती हैं कि जरूरत है आज महिलाएं अपनी सृजनात्मक शक्ति को जाग्रत करें। जिससे उन्हें परेशानियों के दौर में भी मिलेगा सूकून और इस तरह वे खुद को अपने पैरों पर भी खड़ा कर सकती हैं.....
राजधानी की प्रतिभावान हैंडीक्रॉफ्ट कलाकारा सायरा सिर्फ इसलिए नहीं खास हैं कि वे एक से बढ़कर एक कलाकृतियां बनाने में महारत रखती हैं, बल्कि इसलिए भी अलग मुकाम रखती हैं कि उनहोंने अपनी मेहनत और लगन से दुखों और परेशानियों के बीच अपना एक अलग जहां बनाया और जीवन चलते रहने का नाम वाली पंक्तियों को चरितार्थ करती आ रही हैं। वे सिर्फ चल ही नहीं रहीं हैं इस कांटो भरी डगर पर, बल्कि उस जुनून और जोश के साथ हर कदम रख रही हैं कि वे दुनिया और तमाम औरतों के लिए मिसाल बन जाती हैं।
एक परिचय
सायरा बताती हैं कि वे बचपन से ही हैंडीक्रॉफ्ट में रुचि रखती थीं और उन्होंने घर की वेस्टेज या व्यर्थ हो चुकी चीजों को खास आयाम देने का प्रयास किया। उनका यह शौक एक जुनून में बदलता गया और वे जब भी कोई बदसूरत चीज को देखतीं, तो उसे खूबसूरत लुक देने के बारे में चिंतन करने लगतीं और तब ही दम लेतीं, जब वे उसे किसी के ड्राइंग रूम में खास मुकाम दिला पातीं। आम आदमी को यकीन करना मुश्किल होगा कि घर की टूटी बोतलें, टूटे टाइल्स, खराब एक्स-रेज, फटे-टूटे गत्ते के डिब्बों, खराब हो चुकीं ट्यूब लाइट्स, अंडे की ट्रे, लकड़ी के बुरादे, कोल्ड-ड्रिंक की बॉटलों को वे अपने हुनर से ऐसा निखार देती हैं कि अपन कचरे को भी इस रूप में घर की शोभा बनाने पर मजबूर हो जाएं।
सफर बढ़ता गया
उन्होंने भोपाल के हमीदिया कॉलेज से फाइन ऑर्ट में एमए किया और अपनी कला को निखारा। साथ-साथ उन्होंने मानव संग्रहालय और भारत भवन से भी सिरेमिक आदि में प्रशिक्षण लिया और अपनी कला में निखार लाती गईं। सिलसिला बढ़ता गया और फिर उनकी कला को सम्मान भी मिला। भारत भवन, मानव संग्रहालय से लेकर इंदौर, जबलपुर, हैदराबाद, पूना, मुंबई, दिल्ली में उनकी कला को सराहा गया और उनकी नायाब कृतियों को खरीदार भी मिले, जिससे उनका उत्साह बढ़ता गया।
मुश्किलें कम नहीं थीं
किन्हीं कारणों से उनकी और उनके शौहर की बन न सकी और उनकी शादी तलाक में बदल गई। वे बताती हैं कि किसी भी औरत के लिए शौहर का सहारा सबसे बड़ा होता है, लेकिन नियति ने उनके साथ जो कुछ किया उसका रंज और गम मनाने की अपेक्षा खुद को अपने पैरों पर खड़ा करने के बारे में सोचा। उन्होंने तय किया कि वे किसी के आगे मदद के लिए हाथ फैलाने की अपेक्षा खुद कुछ ऐसा करेंगी कि वे इस तरह की दूसरी गमजदा महिलाओं के लिए भी मिसाल बन सकें। क्योंकि अब उनके पास जिम्मेदारी ज्यादा थी, जिम्मेदारी एक बेटी की जिसको अच्छी तालीम देना ओर अपनी कला को मकाम दिलाना, उन्होंने अपना मकसद बना लिया। अब सायरा एक कंपनी में जॉब के साथ अपने हुनर को बढ़ा रही हैं और प्रशिक्षणार्थियों को प्रशिक्षण भी दे रही हैं। आज वे 10 से 15 हजार मासिक कमाने के लायक बन सकी हैं, जिससे वे अपनी बेटी की परवरिश और खुद के जीवनयापन में सक्षम हैं।
कलाकृतियां
उनकी कलाकृतियों में बांस के लैंप, नारियल और घांस के तिनकों से बने शो पीस, एंबोस पेंटिंग्स, वुड शो पीसेज, गाडिय़ों के खराब टायरों से तैयार किए गए हैंगिंग गमले, ट्यूबलाइट्स पेंटिंग्स जेसी कई चीजें हैं, जो उनके और कलाप्रेमियों के ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ा रही हैं। वे बताती हैं कि अक्सर लोग जिनको इस कला की कद्र नहीं है, वे उनसे कहते हैं कि अपने ड्राइंग रूम को कचरा घर बना कर रखा है, तो वे इस तरह के लोगों और उनकी बातों की परवाह किए बगैर अपने काम में आगे बढ़ रही हैं, क्योंकि आज उनकी कृतियों के खरीदार विदेशों में भी मौजूद हैं और अच्दी कीमत पर उनकी कृतियों को सम्मान देते हैं। वे कहती हैं कि यदि आप वेस्टेज को भी यूजफुल बना रहे हैं, तो इस तरह से पर्यावरण को भी आप फायदा पहुंचा रहे हैं, तो इसमे बुरा क्या है। देश के सभी शहरों के अलावा उनहें विदेशों से भी एग्जिबिशन के लिए बुलावे आते हैं, लेकिन बेटी की पढ़ाई डिस्टर्ब न हो, तो वे उन आयोजनों को प्राय: इग्रोर कर देती हैं और देश में ही रहकर कुछ करने की लालसा रखती हैं।
वे अपनी बेटी को डॉक्टर बनाने की ख्वाहिश रखती हैं और हैंडीक्राफ्ट के अलावा उन्हें संगीत का भी शौक है। वे बताती हैं कि उन्हें अपने आर्ट के लिए यदि सड़क से भी कोई यूजफुल, लेकिन औरों के लिए वेस्टेज चीज मिल जाए, तो वे उसे उठाने में नहीं चूकतीं।
अंत में वे कहती हैं कि यही वह कला है, जिसके आधार से वे आज सारी परेशानियों को भूलकर जीवन संघर्ष के लिए अकेली ही चल रही हैं।