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संगीत एवं कलाकारों के साक्षात्कार



 गजल
शिवेश श्रीवास्तव

रा जधानी के मशहूर गजल सिंगर जुल्फिकार अली प्रख्यात शायर जावेद अख्तर की इन पंक्तियों से बहुत ज्यादा प्रभावित हैं, जो उन्होंने मुंबई स्ट्रगल के लिए आने वाले प्रतिभावान कलाकार युवाओं के लिए कही हैं कि कुछ लाओ न लाओ नसीब ले आओ। वे स्वयं भी मानते हैं कि कला की दुनिया में नाम करना मेहनत और लगन के साथ-साथ तकदीर से भी जुड़ा है। गौरतलब है कि जुल्फिकार 12 वर्ष की उम्र से ही गजल गायिकी की दुनिया से जुड़े हुए हैं और इस दौरान संगीत के इस सफर में कई उतार चढ़ाव देखने के बाद 54 वर्ष की अवस्था में भी उनकी लय ताल में कोई चीज बाधा नहीं बन पाई।
वे बताते हैं कि उनके घर में संगीत का माहौल नहीं था, फिर भी उनके दिल में संगीत की स्वर लहरियां किसी हिरन की तरह कुलांचे भरती थीं। बस तकदीर से घर वालों ने उनका विरोध नहीं किया और उन्हें अपनी मंजिल की ओर बढ़ने में हर संभव सहयोग किया। चाह थी, तो राह बनती गई और उनकी मुलाकात हुई म्यूजिक कंपोजर शफीक अल्वी से फिर उन्हें मौका मिला उनसे संगीत की बारीकियां सीखने का। इस दौरान वे वहीद उस्मानी और जगदीश ठाकुर जैसे संगीत के दिग्गजों के संपर्क में आते गए और उनका हुनर परवान चढ़ता गया। संगीत की लगन ने उन्हें भोपाल में शुरू हुए धु्रपद केंद्र में तानपुरा वादक की नौकरी भी दिला दी और किस्मत से रोजी-रोटी की जुगाड़ भी हो गई जहां जॉब के साथ-साथ संगीत की शिक्षा लेने का भी उन्हें अवसर मिला। भारत भवन के रंगमंच पर भी मंचित होने वाले नाटकों में उन्होंने अपना स्वर दिया, लेकिन यह सिलसिला ज्यादा दिन नहीं चला, क्योंकि जुल्फिकार का दिल तो गजल सिंगर बनना चाहता था। गालिब, मीर, बशीर बद्र, दुष्यंत कुमार आदि बड़े शायरों के कलाम उनकी रग-रग में ऐसे समाए कि गायिकी की यह धुन उन्हें मुंबई और नेपाल ले गई, जहां फाइब स्टार होटल्स में आने वाले संगीत रसिकों को उन्होंने अपनी गजल गायिकी के फन से जीत लिया।
जुल्फिकार देश के लगभग सभी शहरों में प्रस्तुतियां दे चुके हैं। यही नहीं मुंबई की वेस्टर्न कंपनी से उनका सातरंग नामक एक आॅडियो एलबम भी जारी हो चुका है, जिसमें उन्होंने म्यूजिक कंपोज किया था और आशा भोसले व सुरेश वाडेकर जैसे दिग्गज कलाकारों ने उस एलबम में अपना स्वर दिया व वीनस कंपनी के लिए भी वे काम कर चुके हैं। घर के कुछ हालातों ने उन्हें मुंबई से वापस भोपाल आने को मजबूर कर दिया, लेकिन उनकी साधना अनवरत जारी है।
प्रदेश और खासकर भोपाल के संगीत रसिकों के बारे में जुल्फिकार का कहना है कि हमारे यहां के लोगों को संगीत की समझ है और वे यहां प्रोग्राम देकर काफी खुशी महसूस करते हैं। शहर और प्रदेश के अलावा वे यूरोप, पेरिस, स्विट्ज़रलैंड, हॉलेंड, इटली और आॅस्ट्रेलिया में भी संगीत कार्यक्रमों में अपनी प्रस्तुतियां दे चुके हैं। इन दिनों वे स्टेज परफॉर्मेंस के अलावा टीवी, सीरियल्स आदि के लिए म्यूजिक कंपोज करने में भी व्यस्त रहते हैं साथ ही मुंबई माया नगरी से भी उनका खास जुड़ाव है। गजल की दुनिया में आने वाले युवाओं को वे संदेश देना चाहते हैं कि रियाज, समर्पण, लगन और सुर की समझ ही यहां महारथ दिलाती है। साथ ही धैर्य के साथ अपने पथ पर चलें मेहनत और नसीब के योग से एक दिन मंजिल जरूर मिलेगी।

सितार के सुर






जुबेर जब 12 वर्ष के थे, तब ही से सितार पर उनकी उंगलियां थिरक रही हैं और आज देश-विदेश में वे सैकड़ों प्रस्तुतियां दे चुके हैं...
प्रस्तुति शिवेश


दे श के युवा सितार वादक, गायक मुंबई के कलाकार जुबेर शेख का कहना है कि मध्यप्रदेश में संगीत की समझ रखने वाले और संगीत के असली कद्रदानों का एक बड़ा वर्ग मौजूद है। यही वजह है कि वे अपने परफार्मेंस के लिए एक बार मध्यप्रदेश जरूर आना चाहते हैं और यहां के संगीत प्रेमियों को अपने सितार की सुर लहरियों से रू-ब-रू कराना चाहते हैं। गौरतलब है कि जुबेर आजकल मुंबई कला जगत को अपनी सेवाएं दे रहे हैं और शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ बॉलीवुड और छोटे परदे की संगीत की दुनिया में उनका सिर्फ दखल ही नहीं है, बल्कि एक अहम भागीदारी है। मूल रूप से इंदौर घराने का प्रतिनिधित्व करने वाले जुबेर ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता अब्दुल मजीद शेख और गुरू भाई जनार्धन जी से ली। लेकिन आज भी जुबेर मानते हैं कि संगीत के प्रति जितना समर्पण किया जाए उतना कम है। इसीलिए वे पद्मश्री पुरस्कार विजेता और प्रख्यात सितार वादक उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर खां से भी सितार की बारीकियों को सीख रहे हैं।
बतौर प्रशिक्षक
एकतरफ जहां जुबेर अपने हुनर को और तराश रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सितार के प्रति आकर्षित युवाओं को हलीम एकैडमी, मुंबई में प्रशिक्षण भी दे रहे हैं।
सम्मान
जुबेर वर्तमान में टीवी सीरियल्स में संगीत देने के साथ-साथ आकशवाणी मुंबई में भी बतौर कलाकार सेवारत हैं। उन्हें विशेष प्रतिभा के लिए 1995 में पंडित वी. डी पालुस्कर अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है। 1996 में आयोजित हुए 31वें स्वर साधना राष्ट्रीय म्युजिक एवं डांस काम्पिटिशन में उन्हें द्वितीय पुरस्कार से नवाजा गया है। साथ ही इसी दौरान उन्हें सुरशृंगार संसद द्वारा सुरमणि की उपाधि भी दी गई। वे चाहते हैं कि एक कलाकार के लिए सबसे पहले आवश्यक है कि वह अपनी कला में खुद को निपुण करे साथ ही अपनी कला साधना की ओर ध्यान दिया जाए, तब ही वास्तव में कलाकार को पूर्ण संतुष्टि मिल सकती है और यहां धैर्य की भी बड़ी जरूरत है।
उनका सृजन
जुबेर मानते हैं कि कला और कलाकार को नभ में स्वतंत्र रूप से विचरण करते पक्षी के समान फैलने और उड़ने का अवसर चाहिए। वर्तमान में टीवी, सिनेमा और स्टेज को इसके लिए सशक्त माध्यम मानते हैं। उन्होंने टीवी पर प्रसारित होने वाले घटा, शबाब, पवित्र रिश्ता, सात फेरे, बालिका वधु आदि धारावाहिकों के संगीत में अपने सितार के सुरों का समायोजन किया है। साथ ही वे सुरेश वाडेकर, पंडित बिरजू महाराज, साधना सरगम, कविता कृष्णमूर्ति, जगजीत सिंह, चंदनदास, गुलाम अली, तलत अजीज, भूपेंद्र सिंह, अनूप जलोटा आदि दिग्गज कलाकारों के साथ भी मंच पर शिरकत कर चुके हैं। भारत के अलावा वे लंदन, इंडोनेशिया, जर्मनी, दुबई आदि बड़े देशों के कला प्रेमियों के बीच भी परफॉर्म कर चुके हैं। जुबेर बताते हैं कि भोपाल के आयोजकों ने उन्हें अपने यहां कार्यक्रम देने के लिए एप्रोच किया है और निकट भविष्य में वे जल्दी ही यहां की फिजा में अपने सितार और संगीत के सुरों की रंगत को घोलने जा रहे हैं।



कला साधना





कथक नृत्यांगना डॉ. विजया शर्मा जब ढाई वर्ष की थीं, तभी से इस विधा के प्रति उनका लगाव हो गया था। आज नृत्य के प्रति यही असीम प्रेम उनकी जीवन ऊ र्जा का आधार है...


प्र ख्यात कथक नृत्यांगना डॉ.विजया शर्मा का कहना है कि उनकी कला साधना उनके लिए ईश्वर की आराधना के तुल्य है। वे मानती हैं कि उनकी यही सोच और विधा के प्रति भावना ही शायद रोज उनका तारतम्य इस कला के नित नए आयामों से करवाती है और उन्हें मिलती है अपनी साधना और शोध के लिए असीम शक्ति। वे कहती हैं कि इसी ऊर्जा से आज वे देश सहित विदेश में भी अपनी कला के रंग बिखेरने में कामयाब हो सकीं और निरंतर इसमें और ज्यादा निखार लाने के लिए प्रयासरत हैं। वर्तमान में वे भोपाल में शासकीय महाविद्यालय में नृत्य की सेवा में समर्पित हैं।
बचपन से ही था जुनून


बचपन से ही नृत्य कला के प्रति प्रभावित विजया समय के साथ-साथ अपने शौक और जुनून को भी आगे बढ़ाती गर्इं और गुरू शिष्य परंपरा के तहत राजगढ़ घराने से पंडित कार्तिक राम और पंडित रामलाल से भी 1985 से 1989 के बीच प्रशिक्षण प्राप्त करने का सौभाग्य उन्हें मिला। डॉ. विजया ने कथक नृत्य विधा में एमए की डिग्री ली है और फिर इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से पीएचडी की। विधा में विशेष प्रतिभा के चलते उन्हें राष्ट्रीय और राज्य स्तर की स्कॉलरशिप्स भी मिल चुकी हैं। आज उन्हें मिले पुरस्कारों और सम्मानों की फेहरिस्त लंबी है, लेकिन विजया मानती हैं कि कला से मिली उपलब्धियां को गिनाने की अपेक्षा वे वर्तमान स्थितियां पर अपने विचार रखें तो ज्यादा अच्छा होगा।
हमारा खजाना


पाश्चात्य चीजों की तरफ प्रभावित हो रहे युवाओं के बारे में विजया का कहना है कि वे पूरे विश्व की कला और संस्कृति का सम्मान करती हैं। लेकिन फिर भी सितारों में चांद के समकक्ष भारतीय कला और संस्कृति की महक और चमक का कोई सानी नहीं है और भारतीय कला का खजाना इन्हीं सितारों के बीच चमकते हुए चांद की तरह है। भारतीय युवाओं का पाश्चात्य संस्कृति के प्रति झुकने को वे इसके प्रति उनकी अनभिज्ञता को दोषी मानती हैं। वे मानती हैं कि यदि बच्चों और युवाओं को हमारी संस्कृति और कला का गहराई से ज्ञान हो, तो वे इसकी निर्मल और उज्ज्वल चमक से बच नहीं सकते और फिर दुनिया का कोई भी दूसरा तिलिस्म उन्हें इसके आगे फीका लगेगा। वे नहीं मानतीं हैं कि पाश्चात्य संगीत या कला ने किसी भी तरह से भारतीय कला के मजबूत किले में या उसकी खूबसूरती में सेंध लगाने का काम किया है। वे स्वयं भी विदेशों में प्रस्तुतियां देकर आई हैं और कहती हैं कि बल्कि विदेशी तो स्वयं हमारी कला से प्रभावित हैं और इसको समझने और जानने व मानने के लिए आतुर हैं। हम ही हैं कि कस्तूरी की सुगंध के पीछे भागते हिरन जैसे अपनी चीज की कद्र करने में खुद को कहीं पीछे पाते हैं।
विदेश में अनुभव

विदेश में अपने आयोजनों के अनुभवों के आधार पर वे कहती हैं कि आयोजन, अनुशासन, समर्पण और कला व कलाकार का सम्मान इन सभी चीजों का विदेशों में संतुलन उन्हें हमसे थोड़ा आगे कर देता है। वे पड़ोसी देश चीन के ओलम्पिक स्टेडियम में हुए गत आयोजन की मिसाल देते हुए कहती हैं कि लाखों की संख्या में मौजूद दर्शकों के बीच दुनियाभर के आयोजनों के साथ भारतीय प्रस्तुति को दर्शकों की ओर से जो सम्मान और प्रतिसाद मिला इससे जाहिर है कि दुनिया में हमारी कला का कितना सम्मान है।
प्रयास हों

वे चाहती हैं कि आज हमारे अपने ही देश और प्रदेश में हमारी ही कला-संस्कृति के व्यापक प्रचार-प्रसार की महती आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ी को हम कुछ दे सकें। इसके प्रचार-प्रसार के लिए शासकीय और निजी स्तर पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों, कला आयोजनों और संसाधनों को जुटाने के लिए प्रयास होने चाहिए। टीवी पर प्रसारित हो रहे रियलिटी शोज के बारे में वे कहती हैं कि इस तरह के शोज में पैसा और ग्लेमर की चकाचौंध है, लेकिन कला के प्रति सम्मान, साधन की गंभीरता और धैर्य की कमी जरूर प्रतिभागियों में महसूस करती हैं, जो अच्छे संकेत नहीं हैं हमारी कला के विकास के लिए। अत: जरूरी है कि नव प्रतिभाएं कला साधना के महत्व को समझें और परिश्रम करके अपना लक्ष्य पाएं शॉर्टकट के फेर में न रहें। कला के क्षेत्र में सरकारी स्तर पर रोजगारोन्मुखी पाठ्यक्रम शुरू हों, छोटे परदे पर ऐसे शास्त्रीय नृत्य संगीत के कार्यक्रमों का निर्माण भी वे जरूरी मानती हैं।
फिल्में और नृत्य

विजया शर्मा मानती हैं कि फिल्में भारतीय जनमानस की आत्मा से जुड़ी हैं और पुरानी फिल्मों में भारतीय शास्त्रीय नृत्य के प्रयोग ने जहां नृत्य को लोकप्रिय बनाया और फिल्मों को भी सफल किया। लच्छू महाराज, सितारादेवी, गोपीकृष्ण, बिरजू महाराज एवं कुमुदिनी लाखिया जी जैसे वरिष्ठ कलाकारों व गुरुओं ने कला क्षेत्र में बड़ा योगदान दिया। नवरंग, पायल की झनकार, झनक-झनक पायल बाजे, देवदास, दस्तक, उमराव जान, भूमिका, पाकीजा, उत्सव आदि फिल्मों में भारतीय शास्त्री नृत्य के सफलतम प्रयोग से वे प्रसन्न तो हैं, पर चाहती हैं कि वर्तमान फिल्मों में भी भारतीय शास्त्रीय नृत्य का अधिक से अधिक उपयोग हो। वे नवप्रतिभाओं को संदेश देती हैं कि कला अनमोल है, न कोई इसे बेच सकता है, न कोई खरीद सकता
है। बस आवश्यकता है इसे ईश्वर की भक्ति की तरह अंगीकार करने की।

जगजीत के फैन हैं सतांशु...








शिवेश श्रीवास्तव
जिस तरह हरियाली और झीलों के बगैरभोपाल की कल्पना करना सम्भव नहीं है उसी तरह संगीत काभी यहां के लोगों के लिए एक अहम मुकाम है और इसके बगैर यहां के लोग खुद को अधूरा मानते हैं। यह कहना है राजधानी के प्रख्यात गिटारिस्ट सतांशु दुबे का। सतांशु विगत 20 वर्षों से संगीत की सेवा में समर्पित हैं और अपने पथ पर निरंतर अग्रसर हैं।
वे बताते हैं कि बचपन से ही उन्हें गाने का बहुत शौक था और फिर परिचय हुआ खूबसूरत साज गिटार से। फिर क्या था उन्होंने धीरे-धीरे गिटार सीखना शुरू किया और वरिष्ठ लोगों से ज्ञान मिलता गया। ईश्वर की कृपा से आवाज तो थी ही उसके साथ साज का संगम हो गया तो बात और बन गई। कक्षा 10वीं में पहली बार उन्होंने अपने स्कूल के फंक्शन में परफॉर्म किया था। फिर क्या था उस परफॉर्मेंस से उन्हें जो पहचान मिली उस चीज ने उनका हौसला और ज्यादा बढ़ा दिया और फिर वे गिटर के साथ एकल स्टेज शो करने लगे।
खास-पसंद
एक तरफ जहां युवा पाश्चात्य संगीत की ओर भाग रहे हैं, वहीं सतांशु को लाइट गजल्स और क्लासिकल टच की चीजें गाने बजाने का बेहद शौक है। ऐसी बात नहीं है कि उन्होंने वेस्टर्न से अपना नाता नहीं रखा है, बल्कि वे उसके भी मास्टर हैं और उनकी अपनी बेहतरीन कंपोजिशंस भी मौजूद हैं, जिन्हें वे खास मौके पर यूज करते हैं। सतांशु कहते हैं कि अच्छा परफॉर्म करने के लिए और अच्छा कलाकार बनने के लिए किसी योग्य गुरू का मार्गदर्शन भी आवश्यक है। और वे अपनी गायिकी में निखार लाने के लिए सीखने कोभी अहमियत देते हैं। जब भी मौका मिलता है नई चीज सीखने में उन्हें कोई परहेज नहीं होता। वे कहते हैं इससे अपनी फील्ड और आपका नॉलेज ही गेन होता है।
परफॉर्मेंस
भोपाल का कोई ऐसा मंच नहीं है, जहां सतांशु ने परफॉर्म न किया हो। शहर के एमवीएम कॉलेज से पासआउट सतांशु भोपाल दूरदर्शन से लेकर विभिन्न निजी टीवी चैनलों पर अपनी शानदार प्रस्तुतियां दे चुके हैं और भोपाल ही नहीं दिल्ली, मुंबई और देश के बड़े शहरों में भी अपनी कला के जौहर दिखा आए हैं व समय-समय पर उनकी प्रस्तुतियां होती ही रहती हैं। वे कहते हैं कि जब वे परफॉर्म करते हैं, तो उन्हें अपनी पसंद के साथ-साथ, सभी की पसंद का ख्याल रखना होता है और स्टेज परफॉर्मेंस में नए-पुराने फिल्मी गीतों से वे खूब समा बांधते हैं। मध्यप्रदेश पर्यटन विभाग ने बड़ी झील पर क्रूज का संचालन किया था और वहां भी सतांशु नियमित सैलानियों को बड़ी झील के सफर के दौरान पानी की लहरों की कल-कल के साथ अपनी आवाज और साज के सुर-ताल मिलाते थे और लंबे समय तक वे वहां बतौर म्यूजिशियंसभी जुड़े रहे।
अंदर की बात
सतांशु जब तन्हा होते हैं, या फिर उन्हें उस तरह के श्रोता मिलते हैं, जो उनकी दिल की चीज सुनना चाहते हैं, तो वे गजल गाना अपनी पहली पसंद मानते हैं। उनका कहना है कि यह क्लास वर्ग होता है, जो फीलिंग्स से जुड़ी चीजों को खास अंदाज में सुनना पसंद करता है। जब वे ऐसे रसिकों के साथ मेहफिल में बैठते हैं, तो रात कब गुजर जाती है संगीत के सुरों के साथ पता ही नहीं चलता। वे प्रख्यात गजल गायक जगजीत सिंह के बड़े फैन हैं और जहां भी उनका शो होता है वे वहां जैसे-तैसे पहुंच जाते हैं। उनका सपना संगीत की दुनिया में नाम रौशन करने का है। इसके लिए वे नहीं मानते कि सिर्फ मुंबई में ही जाकर कुछ हो सकता है। वे मानते हैं हुनर है, तो कदर है बस मेहनत और प्रयास करते जाइए और मौके की तलाश में हमेशा रहिए। आपकी कला और टेलेंट का चुंबक कद्रदानों को खुद ही खींच लाएगा। इस बीच प्रयास करते रहिए और रियाज तो बेहद जरूरी है। राज्य स्तर पर सतांशु को कई बार उनकी कला के लिए पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। इन दिनों वे संगीत की सेवा के साथ-साथ राजधानी के कलाकारों के लिए एक से बढ़कर एक हर तरह के आधुनिक साज उपलब्ध करवाने का काम भी साथ में कर रहे हैं।


अभिनय है विकार का संसार...







राजधानी के वरिष्ठ कलाकार विकार हुसैन ने अपना जीवन अभिनय जगत को समर्पित किया है। कोहेफिजा भोपाल में रहने वाले विकार ने अपनी कला यात्रा के 40 वर्षों के सफर में काफी कुछ पाया है, जिससे वे खुश तो हैं, लेकिन संतुष्ट नहीं हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि जीवन चलते रहने और संघर्ष करते रहने का नाम है। नम्र और शांत स्वभाब के विकार बहुत कुछ करना चाहते हैं और कला जगत में मुकाम बनाना चाहते हैं। उन्हें यकीन है कि अपनी मंजिल को वे एकदिन पाकर रहेंगे। हाल ही में शब्बीर कुमार के स्वर के साथ उनका एक वीडियो एलबमभी रिलीज हुआ है मुंबई से...
शिवेश श्रीवास्तव
इ लेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग की डिग्री पढ़-लिखकर हासिल की और सरकारी नौकरियां भी मिलीं, लेकिन उनका मन तो अभिनय जगत की ओर आकर्षित था। यह दासतां हैं राजधानी के प्रख्यात रंगमंच और टीवी और सिने कलाकार 54 वर्षीय विकार हुसैन की, जो मुंबई में भी अपनी प्रतिभा के जलवे बिखेर रहे हैं। विकार मुस्कराते हुए कहते हैं कि उनका जन्म 1947 में हुआ था। यानी कि जब देश आजाद हुआ था और इत्तेफाक ऐसा रहा कि होश सँभालने के साथ ही उनके घर वालों ने उन्हें अपने भविष्य की डगर चुनने की आजादी दी और कभी किसी काम के लिए नहीं रोका और अपनी डगर चुनने के लिए स्वतंत्रता दी।
कुछ खास
भोपाल के सैफिया स्कूल से अपनी शिक्षा पूरी करने और कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के साथ-साथ विकार कला की दुनिया से भी बराबर जुड़े रहे। रेडियो स्टेशन पर जाकर नाटकों में भाग लेना और स्टेज शोज करना उनका खास जुनून रहा। लेक्ट्रॉनिक इंजीनिरिंग की पढ़ाई पढ़ी थी, तो सरकारी नौकरी भी मिल गई। देश और प्रदेश में ही नहीं बल्कि सऊदी अरेबिया मेंभी उन्होंने लंबे समय तक नौकरी की लेकिन उनका मन तो अभिनय की बारीकियों और स्टेज के संवादों के इर्द-गिर्द घूमता था, तो वे नौकरी में खुद का मन ज्यादा नहीं लगा सके। परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत थी, तो उन्होंने निर्णय लिया कि वे कला जगत को ही समर्पित रहेंगे। और फिर सफर बढ़ता गया। आकशावाणी भोपाल से वे बी हाई ग्रेड के कलाकारों की श्रेणी में आ गए और कला की सेवा के साथ-साथ कुछ पैसेभी मिल जाते थे, तो काम बढ़िया चल रहा था। दूरदर्शन भोपाल और शहर के तमाम बड़े कलाकारों के साथ नाटकों में अभिनय करने के बाद उन्होंने मुंबई का रुख किया और भाग्य से वहां उनको कुछ उम्दा सीरियलों में काम मिला और उनका उत्साह बढ़ता गया।
मिला काम
मुंबई की फॉस्ट लाइफ का जिक्र करते हुए विकार कहते हैं कि एक तरफ जहां लाखों आर्टिस्ट मुंबई में टीवी सीरियल्स और नाटकों व फिल्मों में काम न मिलने पर हताश होते रहते हैं, वहीं उन्हें किस्मत से दिल्ली-मुंबई में काम मिला और सलमा सुल्तान के सुनो कहानी, राजेंद्र सक्सेना के अहसास और मुंबई में हाल ही में बने एक म्यूजिक एलबम सार्इं की बात नेक है में उन्हें अभिनय का मौका मिला। इस वीडियो एलबम में गायक शब्बीर कुमार ने अपना स्वर दिया है। मुंबई के साथ-साथ दिल्ली से भी उनका नाता जुड़ा और शिव कुमार शर्मा के धारावाहिक घर-परिवार, कमाल कर्नल का, डी-डी-1 के टीवी प्ले हम नहीं सुधरेंगे में अभी अभिनय का मौका मिला और दिल्ली-मुंबई के स्टेज सेभी जुड़े रहे और कई स्टेज नाटकों परभी अभिनय किया है उन्होंने।
बड़ा परदा
छोटे परदे और स्टेज पर अपने अभिनय के जौहर दिखाने के बाद उन्होंने बड़े परदे सेभी नाता जोड़ा ओर भोपाल में ही शूट हुई फिल्म तरकीब में उन्हें अपने चहते स्टार नाना पाटेकर के साथ काम करने बड़ी खुशी हुई। विकार की उम्र भले ही 50 पार है, लेकिन हौसला आज भी युवा है और वे अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते रहने में यकीन रखते हैं। वे मुंबई की ओजोन एंटरटेनमेंट नामक संस्था के रजिस्टर्ड कलाकार हैं, जिसमें अमिताभ बच्चन और दिलीप कुमार जैसे कलाकारों के नाम भी शुमार हैं। विकार कहते हैं कि अभी तक उन्हें जो कुछ मिला है उससे वे बेहद खुश हैं, लेकिन वे अभी अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट नहीं हैं, क्योंकि अभी उन्हें बहुत कुछ करना है और मुकाम बनाना है।
संदेश
शहर के युवा कलाकारों को वे संदेश देते हैं कि टैलेंट आपमें हैं, तो कला के प्रति समर्पित रहें। मुंबई स्ट्रगल के लिए अवश्य जाएं, लेकिन यहभी ख्याल रखें कि स्ट्रगल के दौरान आने वाली बड़ी से बड़ी प्रतिकूल स्थितियों से जूझना बड़ी चुनौती है। परिवार का सहयोग और आर्थिक रूप से मजबूतीभी प्रतिभा के साथ-साथ इस क्षेत्र में कदम बढ़ाने के लिए बेहद जरूरी है। अत: युवा इन सारी बातों का ख्याल रखकर खुद को तैयार करें। वे इस बात से भी इनकार नहीं करते कि मुंबई में प्रतिदिन बड़े सपने लेकर आने वालों के ख्आब टूटने मेंभी देर नहीं लगती और वे बरबाद होते भी देखे गए हैं, लेकिन जिन्होंने सब्र और हिम्मत से काम लिया है, उन्होंने कुछ करके जरूर दिखाया है वहां। बस इसी इरादे और जज्बे के साथ उनका संघर्ष भी जारी है। वे अपने गुरू श्री जहां कदर चुगताई का जिक्र करते हुए कहते हैं कि उनकी प्रेरणा से ही आज वे कुछ करने लायक बन सके हैं। साथ ही उनके ससुर और शहर और प्रदेश के ख्यात शायर श्री अख्तर सईद ने भी उनका हौसला बढ़ाया और वे अपने कला पथ पर अग्रसर हैं और पूरी दुनिया को अपने अभिनय का लोहा मनवाना चाहते हैं।

माउथ ऑर्गन का जादूगर




संगीत का गुलाम हूं मैं
गुलाम कादर


मॉउथ ऑर्गन पर गुलाम कादर खान जब देवानंद पर फिल्माए गीत है अपना दिल तो... बजाते हैं, तो किसी भी शो की जान बन जाते हैं। यही साज उन्हें दुनिया में दूसरों से अलग करता है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी कादर गायिकी का भी शौक रखते हैं और मरहूम गायक मोहम्मद रफी के भी बड़े फैन हैं..

कलाकार दुनिया और पूरे समाज को अपने हुनर से खुश रखने का काम करता है, लेकिन उसके जज्बातों को समझ पाना हरेग के बस की बात नहीं है। बहरहाल कलाकार खुश रहता है और सभी को खुश करना ही वह ईश्वर की सबसे बड़ी अराधना और समाज सेवा मानता है। कुछ ऐसे ही मिजाज के हैं राजधानी के प्रतिभावान मॉउथ ऑर्गन प्लेयर गुलाम कादर खान, जिन्हें अब सभी प्यार से कादर भाई कहकर पुकारते हैं। खास बात यह है कि जब मॉउथ आर्गन इनके लबों को छूता है, तो उनकी सांसो में ऐसा घुल मिल जाता है कि मधुर गीत फिजा में बिखर जाते हैं। आज कादर 48 वर्ष के हैं और मुंबई के दिग्गज म्यूजिशियंस को भी अपने फन से रोमांचित कर आए हैं। मूल रूप से महाराष्ट्र के रहने वाले गुलाम कादर पिछले 40 सालों से भोपाल शहर में आकर बस गए हैं और पूरी तरह से भोपाली हो गए हैं। इकहरा बदन और सहज साधारण व्यक्तित्व के कादर संगीत की दुनिया में बड़ा नाम करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने क्या-क्या जतन नहीं किए। मोहम्मद रफी, नौशाद जैसे दिग्गज फनकारों के यहां भी मुंबई में इनका आना जाना रहा।
मॉउथ ऑर्गन के प्रति अपने शौक के बारे में बताते हुए वे कहते हैं कि बचपन में उनके पिताजी ने उन्हें यह चायनीज इंस्ट्रूमेंट खिलौने के तौर पर लाकर दिया और फिर क्या था उनकी हर सांस के साथ इसका ऐसा तालमेल बैठा कि फिर यह शौक परवान चढ़ता गया।
प्रस्तुतियां-
कादर खान भोपाल के सभी मंचों के अलावा मुंबई के बड़े-बड़े ऑर्केस्ट्रॉ ग्रुप में अपने फन का जादू बिखेर चुके हैं। मॉउथ ऑर्गन के अलावा वे हारमोनिया, कांगो, बांसुरी, बांगो और बैंजो जैसे साज बजा लेते हैं और सिंगिंग भी करते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी कादर विसलिंग के भी मास्टर हैं। घोड़े की टाप की आवाजें, छोटे बच्चों की आवाजें निकालना भी उनके शौक में शुमार है।
वे बताते हैं कि मुंबई में कई दफा उनकी आवाजों की रिकॉर्डिंग भी हो चुकी है। साथ ही वे मुंबई के प्रख्यात ऑर्टिस्टों के साथ कांगो प्लेयर रह चुके हैं और कुछ फिल्मों में भी कोरस में उन्होंने अपनी आवाज दी है।
बड़ा टफ साज है यह
मॉउथ ऑर्गन उनका सबसे प्रिय साज है और अक्सर उनके पॉकेट में इस छोटे से सुरीले साज को पाया जा सकता है। इस साज के बारे में वे बताते हैं कि इसको बजाने वाले बहुत दुर्लभता से मिलते हैं। अन्य साजों में तो सुर का आभास गुरू और शिष्य के आमने-सामने होने पर हो ही जाता है। लेकिन इस साज में सांसों के इन और आउट का खेल है, जिसे सिखाना और सीखना बड़ी टेढ़ी खीर है। कुलमिलाकर वे ही इसे बजा सकते हैं, जिनके रोम-रोम और आत्मा में संगीत है।
दर्द है दिल में
अपने जीवन के 48 बसंत पार कर चुके कादर को वो मुकाम नहीं मिल पाया है, जिसकी उन्हें दरकार थी। वे फिल्म इंडस्ट्री में नाम कमाना चाहते थे, लेकिन किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया। मुंबई की बड़ी दिग्गज हस्तियों के साथ टच में रहने के बावजूद वे अपने संकोची स्वभाव के कारण अपनी इच्छा को किसी के सामने जाहिर नहीं कर सके। दूसरी ओर पारिवारिक जिम्मेदारियां भी उन्हें मुंबई से भोपाल ले आईं। मूल रूप से वे वहां भी प्रिंटिंग व्यवसाय से जुड़कर अपनी जीविका कमाते थे और इंडस्ट्री में मुकाम बनाने की कोशिश करते थे और अब भोपाल म.प्र. में भी यही काम करते हैं। अब उनका मूल उद्देश्य समाज के दबे हुए कलाकार तबके को उभारकर ऊपर लाना है।

पंसंदीदा धुनें
है अपना दिल तो आवारा...
ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे...
उड़ती फिरूं...
प्यार हुआ इकरार हुआ...
दुनिया वालों से दूर...
आ भी जा....
आदि हैं, जिन्हें वे हर कार्यक्रम में दर्शकों की और श्रोताओं की डिमांड पर जरूर बजाते हैं।

जुनैन का प्यार सितार


भोपाल से है गहरा नाता
देश के प्रख्यात युवा सितार वादक जुनैन खान का कहना है कि भले ही मुंबई मेरी कर्मभूमि हो, लेकिन भोपाल मेरी जन्मभूमि है, जहां जन्म लेने के बाद सबसे पहले मेरी आंखों ने दुनिया को देखा वह यही शहर है। वे कहते हैं कि इस शहर की फिजा में ही संगीत का वो जादू है, कि जिसकी गिरफ्त में वे ऐसे फंसे की अब जीवनभर उससे बाहर निकलना नहीं चाहते। गौरतलब है कि जुनैन के पिता पद्मभूषण उस्ताद हलीम जाफर खां साहब स्वयं देश के प्रख्यात सितार वादक हैं। जुनैन ने भी अपने पिता से ही तालीम हासिल की है और आज वे मुंबई में युवा संगीत प्रेमियों को प्रशिक्षण दे रहे हैं।
संगीत की शिक्षा
खूबसूरत कद-काठी के जुनैन जितने आकर्षक व्यक्तिव के धनी हैं सितार पर उनकी उंगलियां इसी खूबसूरती के साथ थिरककर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देती हैं। जुनैन बताते हैं कि उन्होंने अपने पिता और गुरू से जाफरखानी बाज पद्धति से सितार की एक अलग ही विधा सीखी। यह सितार वादन की एक अनूठी और जटिल वादन पद्धति है, जिसे वे और उनके पिता ब-खूबी बजाते हैं। संगीत उनहें विरासत मे मिला और इसके लिए वे मालिक का शुक्रगुजार करते हैं, जिसने उन्हें दुनिया की इतनी बड़ी नेमत से नवाजा। वे बताते हैं कि उनके यहां पीढिय़ों से संगीत की परंपरा है और वे इंदौर बीनकार घराने की पांचवीं पीढ़ी के युवा प्रतिनिधि हैं। जिनमें उनके दादा-परदादा उस्ताद गैरत खान, उस्ताद मुरब्बत खान और जाफर खान जैसे विख्यात फनकार शामिल हैं।
एकेडमिक
संगीत के साथ-साथ जुनैन ने अपनी एकेडमिक क्वालिफिकेशन को भी जारी रखा और मुंबई यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में स्नातक किया है। साथ ही उन्होंने सिस्टम मैनेजमेंट में भी ऑनर्स डिप्लोमा ले रखा है। जुनैन मानते हैं कि संगीत के इल्म के साथ-साथ एकेडमिक एजूकेशन भी एक अच्छे कलाकार और समाज के जिम्मेदार नागरिक के लिए जरूरी है। अत: वे कलाकारों को प्रेरणा देते हैं कि सुरों से अटूट रिश्ता रखो, लेकिन अपने व्यक्तित्व विकास के लिए अपनी शिक्षा-दीक्षा को भी जारी रखना जरूरी है।
रहे सक्रिय
अपने स्कूल के वक्त से ही उन्होंने परफॉर्म करना शुरू कर दिया था और इंटर स्कूल काम्पिटिशन में भी वे हमेशा आगे रहते थे। वर्तमान में वे ऑल इंडिया रेडियो मुंबई के ग्रेडेड ऑर्टिस्ट हैं। उन्होंने मुंबई में कई टीवी सीरियल्स के लिए संगीत भी कंपोज किया है और भारत सरकार के मानव संसाधन विभाग से उन्हें संगीत के लिए जूनियर फैलोशिप भी प्रदान की जा चुकी है।
विशेष
जुनैन ने भारत के लगभग सभी शहरों में परफॉर्म किया है और विदेशों में भी उनके कई शोज हो चुके हैं। वे बताते हैं कि फ्रांस में वल्र्ड म्यूजिक फेस्टिवल के दौरान उनका परफॉर्मेंस उनके लिए हमेशा यादगार रहेगा। इस फेस्टिवल में उन्हें दुनिया के विख्यात स्पेनिश गिटार प्लेयर पेडरो कोर्टेस के साथ संगत करने का मौका मिला। देशी सितार और विदेशी साज गिटार के सुरों का संगम जब हुआ तो श्रोता भी रोमांचित हुए बगैर नहीं रह सके। भारत सरकार द्वारा 26 जनवरी 08 को विशेषतौर पर जुनैन को चीन में परफॉर्म करने के लिए भेजा गया था और उन्होंने वहां श्रोताओं का दिल जीता।
बतौर शिक्षक
जुनैन बतौर सितार टीचर मुंबई की हलीम एकेडमी का संचालन कर रहे हैं और उनके पास देश और दुनिया के तमाम युवा और हर उम्र के सितार प्रेमी विधिवत तालीम हासिल कर रहे हैं। वे कहते हैं कि भले ही आज युवा पाश्चात्य संगीत की ओर भाग रहे हों, लेकिन हकीकत यह है कि एक बार जब वे इंडियन क्लासिकल संगीत की पकड़ में आ जाएं, तो खुद को इससे आजाद नहीं कर पाएंगे और इसके चमत्कारिक प्रभाव में डूब जाएंगे। जरूरत है यंगर्स को इससे अवगत कराने की। क्लासिकल कंसर्ट और शोज आयोजित करने की जिसके लिए निजी और सरकारी संस्थाओं को भी आगे आना चाहिए। वे कहते हैं कि युवाओं को क्लासिकल संगीत का जादू देखने-सुनने का मौका बहुत कम मिलता है, जिस वजह से वे इसकी ओर कम ही आकर्षित होते हैं। अत: यहां गलती उनकी नहीं इस महान संगीत के प्रसार-प्रचार की खामियों की है। फिल्म संगीतकारों में उन्हें ए.आर रहमान सबसे ज्यादा पसंद हैं, जिनकी धुनों में उन्हें मिठास और दिल की आवाज ज्यादा महसूस होती है।
भोपाल से मोहब्बत

जुनैन का कहना है कि मैंने अपनी पहली किलकारी भोपाल शहर में ली है, इसलिए भले ही मैं मुंबई में रहता हूं , लेकिन भोपाल से मेरा आत्मीय रिश्ता है। वे कहते हैं कि यहां के लोगों का संगीत के प्रति प्रेम और सम्मान देखते ही बनता है। वे प्रदेश सरकार से चाहते हैं कि भोपाल शहर में भारतीय शास्त्रीय संगीत को बढ़ावा मिले। यदि उन्हें शासन की ओर से एकेडमी शुरू करने में सहयोग मिलेगा, तो वे यहां के संगीत प्रेमियों को जरूर प्रशिक्षण देंगे। 

सितार ने दी
स्मिता को ख्याति



संगीत, खासतौर से सितार को समर्पित राजधानी की युवा सितार प्लेयर स्मिता नागदेव कहती हैं कि सितार ही उनकी जिंदगी है। यही वह साज है, जिसने उन्हें न केवल देश में बल्कि अमेरिका सहित यूरोप में भी पहचान दिलाई है और दिली सुकून दिया है।
राजधानी भोपाल की प्रतिभावान सितार प्लेयर स्मिता नागदेव जब चार वर्ष की थीं, तभी से सितार उनकी जिंदगी का अभिन्न अंग है। इसके पीछे वे बड़ा ही रोचक किस्सा बताती हैं। उनका कहना है कि गुरुजी उनके निकट ही रहा करते थे, जब उनका जन्म हुआ था, तो उसके कुछ माह बाद ही उनकी मां नन्हीं स्मिता को उस जगह लेटा देती थीं, जहां गुरुजी अपने सितार से रियाज किया करते थे। कुछ दिनों में ही उन्होंने नन्हीं स्मिता में एक आश्चर्यजनक चीज देखी कि गुरुजी का सितार सुनकर स्मिता आराम से लेटी रहती थी और मां को जरा भी परेशान नहीं करती थी। जब स्मिता 4 वर्ष की हुई तो अपने पिता की एक पेंटिंग को लेकर उसे सितार के अंदाज में पकड़कर उसपर अपने हाथ चला रही थी। माता-पिता ने अपनी बेटी के लक्षण पहचान लिए और फिर शुरू हो गया तालीम का सिलसिला। गौरतलब है कि स्मिता का जन्म 21मार्च 1972 को नागपुर महाराष्ट्र में उनकी नानी के यहां हुआ था, लेकिन पिता मूल रूप से उज्जैन म.प्र. के रहने वाले हैं। स्मिता ने लगभग 20 वर्षों तक उज्जैन घराने के प्रसिद्ध सितार वादक गुरु स्वर्गीय वासुदेव राव आष्टेवाले से अपनी संगीत की शिक्षा प्राप्त की है।
देश में लगभग कोई शहर अछूता नहीं है, जहां स्मिता ने अपने सितार की सुर लहरियां ने बिखेरी हों। भारतीय विद्याभवन मुंबई, इंडियन कौंसिल ऑफ वल्र्ड कल्चर, बेंगलुरु आदि के अलावा अमेरिका, चीन, सिंगापुर, संयुक्त अरब अमीरात, फ्रांस, यू.एन.ओ मुख्यालय जिनवेा, स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रिया आदि अनेक देशों में वे अपनी प्रतिभा का परिचय दे चुकी हैं।
प्रस्तुतियां
स्मिता श्रोताओं के बीच फर्क बताते हुए कहती हैं कि भारत में सिर्फ शास्त्रीय संगीतकार के जानकार श्रोता ही इस तरह के कार्यक्रमों में आते हैं, लेकिन वाहवाही खूब मिलती है। वहीं जब वे विदेश में परफॉर्म कर रही होती हैं, तो भले ही विदेश दर्शकों को बजाई जा रही राग-रागिनी की समझ कम हो या न हो, लेकिन वे पूरी तन्मयता के साथ उन्हें सुनने-समझने की कोशिश करते हैं। वहां दर्शकों का डिसीपिलिन लाजवाब होता है। परफॉर्मेंस के बीच न तो कोई कलाकार को डिस्टर्ब करता है और न ही कोई बीच से उठकर जाता है। जबकि देश में परफॉर्म करने के दौरान उन्हें ध्यान केंद्रित करने में काफी दिक्कतों का सामना करना होता है। वहीं विदेशों में कीमती टिकट लेकर ऑडियंस उन्हें सुनने आती है और युवाओं की बड़ी तादाद वे अपने प्रोग्राम में पाती हैं।
फिल्म संगीत
वर्तमान फिल्म संगीत से वे ज्यादा खुश नहीं हैं, लेकिन वे एआर रहमान के संगीत को बहुत पसंद करती हैं और ऐसे फिल्मी गीत भी उन्हें पसंद हैं, जो विशुद्ध शास्त्रीय रागों पर आधारित हों। इसके अलावा उन्हें पुराने सभी संगीतकार नौशाद साहब, एसडी वर्मन साहब, ओपी नैयर साहब आदि पसंद हैं और सितार पर रियाज करने के बाद वे कभी-कभी उनके गीतों को भी गुनगुना लेती हैं।

सम्मान
उनकी प्रतिभा को देखते हुए सांस्कृतिक शोध केंद्र द्वारा 1984 से 1991 तक उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की गई।
भारत सरकार की सांस्कृतिक क्षेत्र में युवा कलाकार छात्रवृत्ति 1995 में 2 वर्ष के लिए प्रदान की गई।
उन्हें मास्टर ऑफ म्यूजिक उपाधि भी खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय द्वारा 1996 में मिल चुकी है।
भोपाल विश्वविद्यालय द्वारा 1995 में उन्हें प्राचीन भारतीय इतिहास में उपाधि दी जा चुकी है।
स्मिता आकाशवाणी की बी हाई ग्रेड कलाकारा हैं।
फ्रांस सरकार की ओर से उन्हें पेरिस में ऑर्टिस्ट इन रेसीडेन्स के रूप में जॉज संगीतकारों के साथ फ्यूजन वर्क करने का अवसर भी मिला है।
सुरसिंगार संसद मुंबई से उन्हें सुरमणि की उपाधि भी मिल चुकी है।

एक जुनूनी
सूत्रधार

जगजीत सिंह, अनूप जलोटा, अहमद हुसैन, मोहम्मद हुसैन, जतिन-ललित से लेकर गुलजार तक के प्रोग्रामों को अपनी एंकरिंग से गुजलार कर चुके राजधानी के प्रख्यात एंकर इफ्तेखार अय्यूब का अपने शौक के प्रति जुनून देखते ही बनता है। वे कहते हैं कि जब से होश संभाला है, तब से माइक्रोफोन से उनका चोली-दामन सा साथ रहा है। वे बताते हैं कि स्कूल से ही वे एंकरिंग करने के शौकीन रहे और भोपाल के सेंट फ्रांसिस स्कूल में हर प्रोग्राम के संचालन का मौका उन्हें ही मिलता था। फिर क्या था मौके मिले तो सिलसिला बढ़ता गया और जुड़ गए आकाशवाणी भोपाल से। 70 के दशक में आकाशवाणी से उनकी आवाज पूरे शहर और प्रदेश में छा गई। खास बात यह रही कि अपने शौक को पूरा करने के लिए अय्यूब ने किसी भी काम से परहेज नहीं किया और  ऑटो से लेकर बस ड्राइविंग तक की है ताकि वे अपने जरूरत के संसाधन खरीद सकें और अपने शौक को आगे बढ़ा सकें। वे बताते हैं कि उस वक्त वे रेडियो पर अपनी ड्यूटी के लिए अपने ही ऑटो से जाते थे और आकाशवाणी में ही उसे पार्क करते थे। उन्हें एंकरिंग के मात्र 10 रुपए मिलते थे, लेकिन खुद की आवाज को सैकड़ों-हजारों लोगों तक पहुंचाकर मिलने वाला दिली सुकून उनके लिए ज्यादा बड़ा होता था। यहां वे अपनी कहानियां, वार्ताएं और कविताएं भी प्रस्तुत किया करते थे।
करते हैं घर का रुख
जिंसी, जहांगीराबाद स्थित अय्यूब के घर एक बार कोई जाकर देखे, तो महान आश्चर्य से भर जाएगा। उनके घर के एक खास कमरे में ऐसे दुर्लभ ऑडियो सिस्टम्स और एलपी व ईपी मिलेंगी कि इनके आगे किसी संगीत प्रेमी के लिए हीरे-सोने का खजाना भी मायने नहीं रखेगा। इस कमरे का नाम उन्होंने गॉड गिफ्ट रूम रखा है। जगजीत सिंह, मुन्नी बाई, शकीला बानो, गुलाम अली, अमजद अली खां, पंडित जसराज, भीमसेन जोशी से लेकर दक्षिण भारतीय और सूफी गायकों के रिकॉर्ड का एक बड़ा खजाना उनके पास है। उनके पास हिंदू, पंजाबी और सिंधी धर्म की दुर्लभ आरतियों का ऐसा संग्रह है, जो किसी अन्य के पास शायद ही मिल सके। अय्यूब बताते हैं कि वे जहां भी जाते हैं और देखते हैं कि किसी एंटीक म्यूजिक सिस्टम की बेअदबी हो रही है, तो वे तुरंत उसे खरीद लेते हैं। उनके यहां ग्रामोफोन, चेंजर, ऑडिया-वीडियो सिस्टम के एक से बढ़कर एक नायाब एंटीक मॉडल देखे जा सकते हैं, जो अधिकतर चालू हालत में हैं। और उनका यह संकलन किसी बड़े संग्राहलय का रूप लेने की काबिलियत रखता है।
और क्या करते हैं
एक तरफ वे अपने शौक को जिंदा रखे हैं, तो दूसरी ओर वकालत के पेशे से भी जुड़े हैं। अय्यूब बताते हैं कि छोटे-मोटे काम करकरके उन्होंने अपनी शिक्षा को रुकने नहीं दिया और स्नातक कर वकालत की लाइन पकड़ ली। भोपाल बार एसोसिएशन में हर बड़े कार्यक्रम की एंकरिंग के लिए अय्यूब के लफ्जों की खूबसूरती से ही आयोजकों को कार्यक्रम की सफलता की संतुष्टि मिलती है।
क्या खास है
अय्यूब कहते हैं कि एंकरिंग वह विधा है, जो हर फंक्शन की रीढ़ होती है। चाहे परफॉर्मर कितनी ही अच्छी प्रस्तुति दे दे, लेकिन कार्यक्रम का सूत्रधार अपनी लय ताल नहीं पकड़ता, तो दर्शकों को बांधे रखना और कार्यक्रम को गति देना बहुत कठिन हो जाता है। इसके लिए वे मानते हैं कि भाषा पर पकड़ के साथ-साथ कार्यक्रम के विषय के अनुरूप आपकी स्टडी और होमवर्क मायने रखता है, जिसके आधार पर ही एंकर शब्दों का प्रवाह बनाता है। राजधानी के कई प्रतिष्ठित एंकर्स को अय्यूब प्रशिक्षित भी कर चुके हैं और आज उनके शागिर्द अच्छे मुकाम पर हैं।
किसी जन्नत से कम नहीं
अय्यूब जब भी खुश होते हैं या उदास होते हैं, तो अपने उस खास कमरे में बैठकर सुकून पाते हैं। शहर ही नहीं मुंबई के मशहूर फनकार चंदनदास, गीतकार इब्राहिम अश्क, मेहमूदा सुल्तान और अनूप जलोटा स्वयं अय्यूब की इस संगीतमय इबादतगाह में आकर सूकून पाकर जा चुके हैं व राजधानी के फनकारों का जमावड़ा यहां देररात तक जमा रहता है। और नवाबी दौर की रवायतों के अनुसार गीत-संगीत, मौसकी और शायरी की बातों के साथ-साथ चाय-पान के दौर भी चलते रहते हैं।
मुंबई नहीं जाना
मुंबई की तमाम बड़ी हस्तियों के लिए कार्यक्रमों का संचालन कर चुके अय्यूब बड़े ही जज्बाती इंसान हैं। इमोशन की कद्र करने वाले अय्यूब का कहना है कि वे टोटल प्राफेशन की मायानगरी में जाकर अपना सुकून खोना नहीं चाहते इसलिए अपने शहर में ही खुश हैं। एंकरिंग के साथ-साथ उन्हें गायिकी का भी शौक है और मुकेश की आवाज में गीत गाना उन्हें बेहद पसंद है। वीडियो एडिटिंग का फन भी उनसे दूर नहीं है। जब भी राजधानी में बड़े किसी गायक का प्रोग्राम आयोजित होता है, तो उसे अपने कैमरे में कैद करके संगीत प्रेमियों के लिए वीडियोज भी उपलब्ध करवाते हैं वे। आजकल वे गुलजार साहब की जीवनी पर एक किताब भी लिख रहे हैं और वे इस किताब को उन्हें भेंट करेंगे। आज उनके पास जो कुछ है वे उससे खुश हैं।
आखिर में वे कहते हैं कि
क्या ये फूल विरासत में मिले हैं
तुमने मेरा कांटो भरा बिस्तर नहीं देखा

सचिदा की बोलती तस्वीरें
विख्यात पेंटर सचिदा नागदेव ने 9 वर्ष की आयु में ही अपनी भावनाओं को रंगों के माध्यम से कैनवास पर उतारना शुरू कर दिया था। वर्षों पूर्व उज्जैन के हरसिद्धि मंदिर से महाकाल मंदिर का चित्र बनाना उनके लिए यादगार अनुभव था।प्रदेश का शहर उज्जैन लोगों के लिए धार्मिक तीर्थ स्थल होने के साथ-साथ कला, संस्कृति और साहित्य का केंद्र भी है। महाकाल व हरसिद्धि और राजा विक्रमादित्य की नगरी होने के साथ-साथ इस शहर ने देश को कई प्रतिभाशाली कलाकार दिए हैं। इसी शृंखला में एक नाम है सचिदा नागदेव का जिनका जनम उज्जैन में ही 25 अक्टूबर 1939 में हुआ था और आज यह शख्स अपनी उत्कृष्ट चित्रकला के कारण भोपाल शहर का गौरव हंै। उनके चित्रों में जहां आम आदमी की जिंदगी का हर पहलू है, तो प्रकृति के मनमोहक रंग हैं। उनकी कल्पनाशीलता की उड़ान रंगों में सिमटी हुई उनके चित्रों से बाहर निकले के लिए आतुर नजर आती है। जब भी कोई उनके बनाए चित्रों को देखता है, तो रंगों और विषय की गहराई में डूबे बगैर नहीं रहता अपने जीवन के 69 सावन का आनंद ले चुके सचिदा आज भी अपनी कला के प्रति संजीदा हैं और अपने स्टूडियो में कुछ न कुछ सृजन करते रहते हैं। सचिदा ने अपने सफर की शुरुआत यानी इस कला के लिए प्रशिक्षण उज्जैन के ही एक स्थानीय पेंटर से लिया । उस वक्त वे महज 9 साल के थे। इसके बाद अपनी कला को निखारने के लिए उन्होंने भारतीय कला भवन उज्जैन से ही फाइन आर्ट का प्रशिक्षण लिया। डॉ.वी.एस वाकणकर के निर्देशन में उन्होंने खुद को मांझने में कोई कसर नहीं छोड़ी। गौरतलब है कि वाकणकर विश्वप्रसिद्ध पुरातत्वविद् और कलाकार के रूप में ख्याति रखते हैं। सचिदा ऐसे महान गुरू के निर्देशन में प्रशिक्षण लेने के लिए गौरवान्वित महसूस करते हैं। इस तरह से सफर बढ़ता गया और फिर जे.जे ऑर्ट मुंबई में सचिदा ने दाखिला ले लिया और वहां से भी प्रशिक्षण प्राप्त किया। कला के साथ-साथ उज्जैन की विक्रम यूनिवर्सिटी से उनहोंने प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विषय में एम.ए. की डिग्री हासिल की।हुनर है तो कदर है इन पंक्तियों को चरितार्थ करते हुए सचिदा ने ऐसे-ऐसे सृजन किए कि उनकी प्रतिभा को देखते हुए म.प्र. शासन द्वारा उन्हें 1976 में अमृता शेरगिल फैलोशिप देकर सम्मानित किया। इसके बाद 1997 में उन्हें प्रदेश सरकार ने सीनियर ऑर्टिस्ट फैलोशिप प्रदान की। सचिदा बताते हैं कि आज से 40-45 वर्ष पूर्व वे हरसिद्धि मंदिर के ऊंचे द्वारा पर बैठकर वहां से दिखने वाले महाकाल मंदिर को भी अपने कैनवास पर उतार चुके हैं और उस वक्त उनका यह क्रिएशन काफी पसंद किया गया था। वे बताते हैं कि उस वक्त जंगलों और हरियाली के बीच हरसिद्धि से महाकाल का दृश्य बड़ा ही अनूठा दिखता था। अब भोपाल आकर बस गए सचिदा की पेंटिंग प्रदर्शनियां भारत भवन भोपाल, नई दिल्ली, मुंबई, चेन्नई के अलावा विदेशों में भी आयोजित हो चुकी हैं। उन्हें 1954-55 के शंकर्स इंटरनेशनल चिल्ड्रन आर्ट काम्पिटिशन में सम्मानित किया जा चुका है। म.प्र सरकार द्वारा 1997 में दिया गया शिखर सम्मान भी उनकी विशेष उपलब्धि है। सचिदा कहते हैं कि उनका पूरा परिवार कला क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। वे स्वयं मॉडल सकूल भोपाल में भी लंबे समय तक सेवाएं दे चुके हैं और अब पूरी तरह से कला को समर्पित हैं। उनकी एक बेटी प्रसिद्ध कलाकार है, तो दो बेटे भी देश-विदेश में सैटल हो गए हैं। सचिदा मानते हैं कि समाज की उन्नति और विकास में कलाकार का बड़ा योगदान होता है फिर चाहे वह किसी भी विधा से जुड़ा हो। उनकी कृतियों में भारतीय लोक-संस्कृति और परंपरा को देखकर हर किसी का मन खिल उठता है और यही उनकी सच्ची साधना का प्रतिफल है। वे युवाओं को संदेश देते हैं कि किसी भी कला में पारंगत होने के लिए धैर्य के साथ उसकी गहराई तक जाएं और अपनी कल्पनाशीलता बढ़ाएं तभी सफलता मिलेगी।


मूक बधिर माईम कलाकार अरुण सक्सेना


'आदमी चाहे तो तकदीर बदल सकता है, आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है।


बहुत कम लोग ऐसे होते हैं,जो अपनी कमजोरी को अपनी ता$कत बना पाते हों और अरुण सक्सेना ऐसे ही लोगों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी विकलांगता को माइम कला का रूप दिया। कुदरत का क्रूर मजाक उनके साथ यह हुआ कि वे जन्म से ही बोलने और सुनने में असमर्थ हैं। 13 अगस्त 1963 को राजगढ़ जिले के एक छोटे से गांव तालोड़ी में जन्में अरुण की इस कमजोरी से उनका परिवार भी हताश और निराश हो गया था कि अब इस लड़के कि जिदगी का क्या होगा। रह-रह कर माता पिता को यह चिंता सता रही थी। अरुण अपनी इस कमज़ोरी को लेकर धीरे-धीरे बड़े होते गए। मूक बधिर होने के कारण परिवार वालों ने उन्हें विकलांग बच्चों के स्कूल आशानिकेतन भोपाल म।प्र। में दाखिला दिलवा दिया। भोपाल में अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए अरुण को कई दिक्कतों का सामना भी करना पड़ा। दुनिया में नामसझ लोगों कि भी कमी नहीं हैै और इन्हीं न समझ लोगों ने अरुण की कम$जोरी का म$जाक भी खूब उड़ाया लेकिन अरुण ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने अपनी इसी कम$जोरी को अपनी ता$कत भी बना लिया। हाई स्कूल उत्तीर्ण करने के बाद वे अपने भाई के साथ मुंबई चले गए। उनके स्वाभिमान ने उनसे कहा कि वे किसी पर बोझ नहीं बनेंगें और मुंबई में भाग्य से उन्हें एक प्रिटिंग प्रेस में नौकरी भी मिल गई। बस यही उनके कै रियर की शुरुआत थी। अरूण ने देखा कि लोग उनके चेहरे के हाव-भाव कि नकल उतारा करते थे, तब उन्होंने सोचा कि क्यों न मैं इस कमज़ोरी को एक कला का रूप दूं। बस यहीं से उनके माइम की कला का सफर शुरू हो गया और उन्होंने घर पर चेहरे और अपने शरीर के अन्य अंगों से लोगों के हाव-भाव बनाना शुरू कर दिए और धीरे-धीरे वे अपनी कला में पारंगत होते गए यही नहीं हुनर है, तो कदर है वाली पंक्तियों को भी उन्होंने बखूबी चरितार्थ किया और उन्हें अपनी कला का प्रदर्शन करने का भी भरपूर मौका मिला और उन्होंने स्टेज पर भी प्रस्तुतियां देना प्रारंभ कर दिया। कला मिली कलाकार को और जीवन साथी भी मिल गया उनका विवाह भी हुआ । उनकी पत्नी भी उनकी तरह ही मूक-बधिर हैं। इसके बाद उनका तबादला भोपाल म।प्र। में हो गया और दूरसंचार विभाग में कनिष्ठ लेखापाल के पद पर वे अब भी कार्यरत हैैं। नौकरी के साथ-साथ उन्होंने अपनी कला को निखारने में भी भरपूर समय दिया और 1997 में उन्हें दूरसंचार विभाग का सबसे बड़ा पुरस्कार संचार दूत केंद्र सरकार द्वारा प्रदान किया गया। फिर उन्होंने मुड़कर पीछे नहीं देखा दिल्ली,मुंबई, कोलकाता,चैन्नई,जयपुर, शिमला जैसे भारत के कई बड़े-बड़े शहरों में अरुण ने अपनी प्रतिभा के जोहर दिखाए। अरुण के प्रशंसकों में क्रिकेटर कपिल देव, विश्वनाथन आनंद, डेनिस लिली पूर्व आस्ट्रेलियाई क्रिकेटर, निर्माता- निर्देशक गुल$जार सहित भारत के पूर्व राष्टï्रपति महामहिम श्री ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और अभिनेता शशि कपूर भी हैं। अरुण आज म.प्र के प्रतिष्ठित माइम आर्टिस्टों में गिनें जाते हैं। अरूण इशारों में दुनिया को संदेश देने की ख्वाहिश रखते हैं कि ईश्वर ने जो नहीं दिया उसका अफसोस मत करो,बल्कि जो दिया है, उससे दुनिया में अपना नाम रोशन करके दिखाया जाए, तो बात है। अरुण का यह संदेश वाकई में मनन करने योग्य है। आज उनकी दो सामान्य संताने भी हैं और उनकी बूढ़ी मां अपने बेटे पर गर्व करती हैं और उनके बड़े भाई का मानना है कि अरुण तो हम सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ है।



                                                                कव्वाली